
पीयूसीएल नेता सेन को निचली अदालत ने दिसम्बर 2010 में देशद्रोह का दोषी ठहराते हुउ उम्र कैद की सजा सुनाई थी। इसके बाद से डॉ सेन जेल में थे। छत्तीसगढ़ पुलिस ने विनायक सेन के खिलाफ नक्सलवादियों को मदद पहुंचाने, उनकी विचारधारा का प्रचार करने और उनके लिए संपर्क सूत्र का काम करने का आरोप लगाया था, लेकिन सबूत के नाम पर उसके पास डॉ. सेन के घर से जब्त कुछ किताबें, पत्रिकाएं और पर्चे थे, जो राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले किसी भी विद्यार्थी या बुद्धिजीवी के घर में भी मिल सकते हैं। मेरे विचार से विनायक सेन और उनके काम को लेकर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती हैं, लेकिन इस मामले में छत्तीसगढ़ सरकार के रवैये के पक्ष में कोई भी लोकतांत्रिक सोच वाला कभी नहीं आएगा। इस मामले में दिलचस्प बात यह है कि अदालत ने जमानत के लिए डॉ सेन की याचिका पर सुनवाई करते हुए छत्तीसगढ़ सरकार के वकील से आश्चर्य के साथ पूछा था कि किसी के घर में महात्मा गांधी की जीवनी मिलने से क्या उसे गांधीवादी मान लिया जाएगा? डॉ सेन के खिलाफ एक और आरोप यह था कि वे जेल में बंद नक्सली नेता पीयूष गुहा से 33 बार मिलेे। बिना किसी सबूत के डॉ सेन पर यह आरोप भी लगाया गया कि इन मुलाकातों के दौरान उन्होंने पीयूष गुहा के साथ नक्सली सूचनाओं का आदान-प्रदान किया। इस आरोप को सुप्रीम कोर्ट ने एक सिरे से खारिज करते हुए कहा कि डॉ सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाने और उनकी जमानत याचिका खारिज करने से पहले ट्रायल कोर्ट सहित हाईकोर्ट को अभियोजन पक्ष से नक्सली सूचनाओं के आदान-प्रदान के किस्म और तरीकों पर सवाल तो पूछने थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया है। डॉ सेन पर लगे राजद्रोह के आरोप को निराधार बताते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा अचरज जताए जाने को लेकर बुद्धिजीवी वर्ग को गंभीरता से विचार करना जरूरी है। भारत में न्यायपालिका, चाहे वह सबसे निचले पायदान की हो, अपने फैसले लेने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है, लेकिन फैसलों के दौरान जब न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को लेकर उससे कोई चूक होती नजर आती है तो इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति समाज का विश्वास कम होता है। देश के कई राज्यों में नक्सलवादी हिंसा एक बड़ी समस्या बनी हुई है, जहां की सरकारें इससे अपने स्तर पर से निपट रही हैं, लेकिन उन्हें इस बात का ध्यान होना चाहिए कि ऐसा करते हुए वे भारतीय लोकतंत्र की मर्यादाओं का अतिक्रमण न करें।
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