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बाघों के अस्तित्व पर खतरा

औद्योगिक परियोजनाओं और शिकार की वजह से देश के उत्तरी आंध्र प्रदेश, पूर्वी गोदावरी, करीमनगर सहित विशाखापट्नम के आसपास बाघों के आवासीय क्षेत्रों में भारी कमी आई है, इससे उनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। ऐसे में बाघों के संरक्षण के लिए जंगल और उसके आसपास रहने वाले लोग किस हद तक मददगार साबित हो सकते हैं, इस पर विचार किया जाना अत्यंत जरूरी हो गया है।
दो दशक पहले कानून की उपेक्षा करते हुए शिकारी बेखौफ बाघों का शिकार करने लगे थे, तब सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। कुछ पर्यावरणविदों ने जब इस खतरनाक स्थिति की ओर सरकार का ध्यान दिलाया तो आनन-फानन में बाघ संरक्षण को लेकर परियोजनाएं बनीं। नतीजतन पिछले एक दशक में बाघों के संरक्षण को लेकर देश में एकदम से जागरूकता का माहौल बन गया है। पिछले सोमवार को अंतरराष्ट्रीय बाघ सम्मेलन में बाघों की गणना सूची 2010 जारी की गई है। इसके मुताबिक देश में बाघों की संख्या 1706 हो गई है, जो 2006 की गणना से 295 अधिक है। पिछले गणना से इस गणना के बीच के चार सालों में बाघों की संख्या में प्रयासपूर्वक इजाफा किया गया है, तो यह वाकई काबिले तारीफ है, लेकिन चिंता की बात यह है कि बाघ संरक्षण के लिए कार्यरत विशेषज्ञों व पर्यावरणविद इस गणना को लेकर न बहुत प्रसन्न हैं और न ही एकमत हैं। यह पहला मौका है जब गणना में सुंदरबन के बाघों को शामिल किया गया है, पिछली गणना के दौरान सुंदरबन के बाघों को शामिल नहीं किया गया। सर्वे से यह भी पता चला है कि काजीरंगा और दक्षिण भारत में बाघों की संख्या बढ़ी है, जबकि मध्य व उत्तर भारत में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि बाघों का आवासीय क्षेत्र 936,000 हेक्टेयर से घटकर 728,000 तक पहुंच गया है। मध्य व उत्तर भारत के वनों में आज बाघों की संख्या नही बढ़ पाई है, तो इसकी सबसे बड़ी वजह यहां के जंगलों में कोई कानून असरकारी साबित न हो पाना है।

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