जन-वाणी

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भूखे पेट बारिश में रात भर भीगते रहे ग्रामीण

- बरसात में मकान तोडक़र प्रशासन ने किया मानवता को शर्मशार


बरसात के मौसम में सरकारी जमीन से मकान तोड़े जाने के बाद बेघर हुए नरियरा के दो दर्जन परिवार पिछले दो दिनों से खुले आसमान के नीचे भूखे पेट रहकर रात गुजार रहे हैं, अतिक्रमण दस्ते ने ग्रामीणों के सामान को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया है, जिससे अब उनके सामने कई तरह की समस्या खड़ी हो गई है।
जांजगीर-चांपा जिले के पामगढ़ विकासखंड अंतर्गत ग्राम पंचायत नरियरा के मुख्य मार्ग पर स्थित सरकारी जमीन से बेजा-कब्जा हटाने का सरपंच से प्रस्ताव मिलने के बाद सोमवार की सुबह एसडीएम एम.एल. सिरदार व तहसीलदार एस.एस. दुबे गांव पहुंचे और उन्होंने पुलिस व राजस्व अमले के सहयोग से अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई शुरू की। अतिक्रमण दस्ते ने घंटे भर के भीतर दो दर्जन मकानों को ढहा दिए। कार्रवाई के दौरान ग्रामीणों को सामान हटाने की मोहलत भी नहीं दी गई, जिससे मकान के साथ सारा सामान मलबे में दब गया। भरे बरसात में मकान ढहने से ग्रामीणों के सिर से छत छिन गई और वे परिवार सहित सडक़ पर आ गए। आशियाना उजडऩे से ग्रामीण सोमवार की रात चूल्हा भी नहीं जला पाए, वहीं रात भर जमकर बारिश हुई, जिसके कारण ग्रामीण भीगते रहे। प्रभावित ग्रामीण मंगलवार की सुबह अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ कलेक्टोरेट पहुंचे और कलेक्टर ब्रजेश चंद्र मिश्र से मुलाकात कर न्याय की गुहार लगाई। मकान टूटने के बाद बेघर हुई पीतर बाई ने बताया कि अब उसे आशियाने की चिंता सताने लगी है। वह पिछले 25 वर्षो से अपने परिवार के साथ मकान में रह रही थी। उसके 5 पोते है, जिनकी उम्र 2 से 5 साल के बीच है। मकान टूट जाने से उसके पोते पूरी रात बारिश में भीगते रहे है, उसे अब कलेक्टर से ही न्याय की उम्मीद है। ममता निर्मलकर ने बताया कि प्रशासन की उदासीनता के कारण बरसात के मौसम में उनके सिर से छत छिन गई। कार्रवाई के पहले राजस्व अमले ने नोटिस भी नहीं दिया था। एकाएक अतिक्रमण दस्ते ने कार्रवाई शुरू कर दी, जिससे उनका सारा सामान बर्बाद हो गया। अब तो उनके पास राशन व कपड़े भी नहीं रह गए हैं। ऐसे में उन्हें खासी दिक्कत हो रही है। बेघरबार होने की शिकायत लेकर कलेक्टोरेट पहुंची पकली बाई (70 वर्ष) ने बताया कि अतिक्रमण दस्ते ने बिना सूचना के कार्रवाई शुरू कर दी और ग्रामीणों को सामान हटाने का मौका भी नहीं दिया। इसका विरोध करने पर कुछ पुलिसकर्मियों ने उसे उठाकर दूर फेंक दिया, जिससे उसे चोंटे आई है। घर ढहने से उसके बेटे के छोटे-छोटे बच्चे खुले आसमान के नीचे रात भर सो नहीं सके। मकान ढहने से परेशान त्रिवेणी बाई ने बताया कि उसकी तीन बहुएं गर्भवती है, जिनकी जचकी जल्द ही होने वाली है। इस बात की जानकारी देते हुए उसने तहसीलदार से कुछ दिनों की मोहलत मांगी थी, लेकिन अतिक्रमण दस्ते ने उनकी एक न सुनी और महिलाओं को घर से खदेडक़र मकान ढहा दिया।
बहरहाल राजस्व अधिकारियों ने मानवता को तार-तार करते हुए बरसात में मकान ढहाकर ग्रामीणों को खुले आसमान के नीचे रहने मजबूर कर दिया है, जिससे प्रशासन की कार्रवाई पर सवाल उठने लगे हैं।

विश्व में 30 करोड़ लोग पीड़ित हैं अस्थमा से

-राजेन्द्र राठौर/छत्तीसगढ़

जीवन शैली पर हावी आधुनिकता के साथ शहरों में खत्म होते खेल मैदान से बढ़ा इंडोर गेम्स का चलन युवाओं को अस्थमा का मरीज बना रहा है। हालात इतने खतरनाक हैं कि अस्थमा के कुल मरीजों में अब युवाओं और बच्चों की संख्या बड़ों से दोगुनी हो गई है। पिछले चार-पांच सालों की तुलना में अस्थमा के मरीजों की संख्या में दस से पंद्रह प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। वर्तमान में विश्व भर के 30 करोड़ से भी ज्यादा लोग अस्थमा से पीड़ित हैं।

इस विषय पर आज इसलिए बात की जा रही है, क्योंकि 5 मई को विश्वभर में अस्थमा दिवस मनाया जा रहा है। विश्व अस्थमा दिवस की शुरुआत ग्लोबल इंटिवेटिव अस्थमा हेल्थ केयर ग्रुप द्वारा 1998 में की गई। स्पेन के वार्सिलोना में आयोजित विश्व अस्थमा दिवस की पहली बैठक में पैंतीस से अधिक देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इसके बाद से प्रत्येक वर्ष विश्व अस्थमा दिवस मनाया जाने लगा। एक सर्वे के मुताबित वर्तमान में विश्व में लगभग 30 करोड़ व भारत में 3 करोड़ लोग अस्थमा के रोगी हैं। बच्चों में यह रोग लगभग 10-15 प्रतिशत में होता है। इसका मुख्य कारण प्रदूषित वातावरण, आधुनिकीकरण और तेजी से बढ़ता औद्योगिकीकरण व तेजी से बदलती हुई दैनिक दिनचर्या ही है। अस्थमा एक ऐसी बीमारी है जिसमें पर श्वास नली या इससे संबंधित हिस्सों में सूजन के कारण फेफड़े में हवा जाने वाले रास्ते में रूकावट आती है, जिससे सांस लेने में तकलीफ होती है। जबकि शरीर की जरूरतों को पूरा करने के लिए हवा का फेफड़ों से अन्दर बाहर आना-जाना जरुरी है। खासकर अप्रैल अंतिम व मई माह का पहला सप्ताह अस्थमा रोगियों के लिए घातक हो सकता है। इस दौरान फसलो की कटाई व अन्य पौधों से निकलने वाले परागकण व धूल भरी आंधी से संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। मौसम में बदलाव के साथ ही फसलो की कटाई के दौरान निकलने वाले कण व परागकण वायुमंडल में मिल जाते हैं, जो अस्थमा रोगियों के लिए परेशानी पैदा करते हैं।

विशेषज्ञों की मानें तो खेल मैदान की कमी के चलते युवा इंडोर गेम्स को प्राथमिकता दे रहे हैं। इंडोर गेम्स के दौरान घर के पर्दे, गलीचे व कारपेट में लगी धूल उनके लिए बेहद खतरनाक साबित हो रही है। इससे उनमें एलर्जी और अस्थमा की समस्या हो रही है। इतना ही नहीं घर की चहारदीवारी में बंद रहने वाले युवा जब कॉलेज जाने के लिए घर से बाहर निकलते हैं तो वातावरण के धूल व धुएँ के कण से भी उन्हें एलर्जी होने की संभावना बढ़ जाती है। दरअसल, वायरल इंफेक्शन से ही अस्थमा की शुरुआत होती है। युवा यदि बार-बार सर्दी, बुखार से परेशान हों तो यह एलर्जी का संकेत है। सही समय पर इलाज करवाकर और संतुलित जीवन शैली से बच्चों को एलर्जी से बचाया जा सकता है। समय पर इलाज नहीं मिला, तो धीरे-धीरे वे अस्थमा के मरीज बन जाते हैं। अस्थमा का दवा के साथ यौगिक क्रियाओं से भी पूर्ण इलाज संभव है। योगाचार्यो की मानें तो श्वास प्रणाली के गड़बड़ होने से व्यक्ति अस्थमा की चपेट में आता है। बीमारी को दूर करने में अनुलोम विलोम प्राणायाम सर्वाधिक कारगर है। साथ ही सीतली व सूर्य भेदी प्राणायाम भी बीमारी रोकने में सहायक है।

मोबाइल -09770545499

बदल गए प्रेस की स्वतंत्रता के मायने

-राजेन्द्र राठौर/छत्तीसगढ़

एक स्वस्थ लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रेस का अपना ही महत्व है। इससे प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ती है और आर्थिक विकास को बल मिलता है, लेकिन समाज का चौथा स्तंभ कहलाने वाले प्रेस और पत्रकारों की स्थिति बहुत संतोषजनक भी नहीं है। तेजी से बढ़ते विज्ञापनवाद के कारण आज प्रेस की स्वतंत्रता के मायने पूरी तरह से बदल गए हैं।
3 मई को विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है। यह दिन प्रेस व पत्रकारों के लिए बहुत खास दिन होता है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस याद दिलाता है कि हरेक राष्ट्र और समाज को अपनी अन्य स्वतंत्रताओं की तरह प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी हमेशा सतर्क और जागरूक रहना होता है। मगर आधुनिक तकनीक और विज्ञापन की चकाचौंध दुनिया ने प्रेस व पत्रकारों की स्वतंत्रता के मायने ही बदल कर रख दिए हैं। कुछ दशक पहले पत्रकार समाज में जो कुछ देखता था, उसे लिखता था और उसका असर भी होता था, लेकिन आज पत्रकारों के पास अपने विचार व आंखों देखी घटना को लिखने का अधिकार भी नहीं है। यदि पत्रकार कुछ लिखना भी चाहे, तो पहले उसे अपने संपादक व प्रबंधन के लोगों से अनुमति लेनी पड़ती है। इसके बाद भी उस पत्रकार द्वारा लिखे खबर के प्रकाशित होने की कोई गारंटी नहीं है। यदि खबर किसी विज्ञापनदाता के खिलाफ हो तो, खबर छपने की गुंजाईश ही नहीं है। आज हम भले ही प्रेस को स्वतंत्र मान रहे है, लेकिन इसमें कितनी फीसदी सच्चाई है, इसे हम भली-भांति जानते हैं। आधुनिक तकनीक के कारण आज पत्रकारिता एक बड़े उद्योग का रूप ले चुका है। देश में ऐसे कई धन्ना सेठ हैं, जो अपने काले कारनामों को छिपाने के लिए प्रेस को ढ़ाल बनाए बैठे हैं। कुछ लोग तो अपने रूतबे को कायम रखने के लिए प्रेस का संचालन कर रहे हैं। ऐसे प्रेस में काम करने वाले पत्रकार की क्या अहमियत होगी और वह कितना स्वतंत्र होगा, इसका अंदाजा लगाना बहुत आसान है। बदलते परिवेश में आज पत्रकार कहलाने वाले एक नए किस्म के कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है, जो हर महीने पगार लेकर अपने कलम की धार को धन्ना सेठों के पास बेचने के लिए मजबूर है। आखिर ऐसा करना पत्रकारों की मजबूरी भी तो है, क्योकि पत्रकारिता का रोग यदि किसी को एक बार लग जाए, तो उसे केवल लिखने-पढ़ने में ही मजा आता है। इसी बात का ही प्रेस के मालिक फायदा उठाते है और पत्रकारों को उनके हाथों की कठपुतली बनकर काम करना पड़ता है। यदि पत्रकार कभी अपनी मर्जी से कोई खबर लिख दे और उसे छापने के लिए प्रेस पर दबाव डाले, तो समझो उसकी नौकरी गई। बड़े शहरों के पत्रकारों की हालत अच्छी है, मगर छोटे शहरों व कस्बों में काम वाले पत्रकारों की दशा इतनी दयनीय है, कि उनकी कमाई से परिवार को दो वक्त रोटी मिल जाए, वही बहुत है। हां, यह बात अलग है कि कुछ पत्रकार गलत तरीके से पैसे कमाकर आर्थिक रूप से संपन्न हो रहे है, लेकिन ज्यादातर पत्रकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के बावजूद न केवल कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, बल्कि उन पर खतरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। मौजूदा हालत में सबसे ज्यादा उन पत्रकारों को मुसीबत झेलनी पड़ रही है, जो समाज की हकीकत को लिखने का दम रखते है, जबकि बिना कुछ लिखे-पढ़े पत्रकार कहलाने वाले छुटभैये लोगों की तो हर तरफ चांदी ही चांदी है। ऐसे लोगों की प्रेस मालिकों के साथ खूब जमती है। दरअसल वे मलाई बटोरकर अपने मालिक तक पहुंचाते जो हैं।
पत्रकारों को सुविधा देने तथा आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में सरकार भी गंभीर नहीं है। रेल में सफर करने के लिए सरकार ने पत्रकारों को थोड़ी बहुत छूट दी है
, मगर इसके लिए भी अधिमान्यता का कार्ड होना जरूरी है। जबकि सरकार इस बात को भी अच्छी तरह से जानती है कि ज्यादातर प्रेस के संपादक अधिमान्यता कार्ड के लिए अपने पत्रकारों को अनुभव प्रमाण पत्र बनाकर नहीं देते। ऐसे में सरकारी छूट का सभी पत्रकारों को फायदा ही क्या? सोंचने वाली बात तो यह है कि जिस बैंक व वाहन व्यवसायी की खबर को पत्रकार आए दिन छापता है, वही लोग पत्रकार को लोन देने के लिए भी हाथ खड़े कर देते हैं। लोन के लिए पत्रकार के निवेदन करने पर ऐसे लोग नियमों की दुहाई देते है और यह भी कहते है कि पत्रकारों को लोन देने के लिए उनके उपरी प्रबंधन से कोई निर्देश नहीं है। ऐसा सुनकर काफी आश्चर्य लगता है। तकलीफ तो उस समय ज्यादा होती है जब बैंक में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को आसानी से लोन दे दिया जाता है और वही पत्रकार खड़ा मुंह ताकता रहता है। पत्रकारिता क्षेत्र आज इतनी खराब हो गई है कि बहुत कम लोग पत्रकार बनने की इच्छा रखते है। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर एक पत्रकार बनकर मुझे क्या मिला, क्योंकि पत्रकारिता का भूत सवार होने के बाद मेरे हालात दिनों दिन बद से बदतर जो हो गए हैं। मगर जब मैं गहराई से सोंचता हूं कि पत्रकार बनने के बाद भले ही मुझे कुछ मिला या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन कम से कम मैं समाज की गंदगी को साफ करने की कोशिश तो कर रहा हूं। खैर लिखने को तो तमाम बातें है, लेकिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी पत्रकारों को प्रेस की सच्ची स्वतंत्रता के लिए गंभीरता से चिंतन करना होगा।
संपर्क:-09770545499

स्वतंत्र अखबारों के गुलाम पत्रकार !

आधुनिक तकनीक ने समाचार-पत्रों तथा दूसरे संचार माध्यमों की क्षमता बढ़ा दी है, लेकिन क्या वास्तव में पत्रकारों की कलम ऐसा कुछ लिखने के लिए स्वतंत्र है, जिससे समाज और देश का भला हो? आज जब हम समाचार-पत्र की आजादी की बात कहते हैं, तो उसे पत्रकारों की आजादी कहना एक भयंकर भूल होगी। आधुनिक तकनीक ने पत्रकार के साथ यही किया है, जो हर प्रकार के श्रमिक-उत्पादकों के साथ किया है। मौजूदा हालात ऐसे है कि पत्रकार की कलम अखबार मलिकों की गुलाम बनकर रह गई है।

दरअसल, 3 मई को प्रेस की आजादी को अक्षुण्ण रखने के लिए विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है। हम विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस ऐसे समय मना रहे हैं, जब दुनिया के कई हिस्सों में समाचार लिखने की कीमत पत्रकारों को जान देकर चुकानी पड़ रही है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस याद दिलाता है कि हरेक राष्ट्र और समाज को अपनी अन्य स्वतंत्रताओं की तरह प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी हमेशा सतर्क और जागरूक रहना होता है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रेस का अपना ही महत्व है। इससे प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ती है और आर्थिक विकास को बल मिलता है, लेकिन समाज का चौथा स्तंभ कहलाने वाले प्रेस और पत्रकारों की स्थिति बहुत संतोषजनक भी नहीं है। खासकर भारत देश में पत्रकारों की हालत ज्यादा ही खराब है। महानगरों में काम करने वाले पत्रकार जैसे-तैसे आर्थिक रूप से संपन्न है, मगर छोटे शहरों व कस्बों में काम वाले पत्रकारों की दशा आज इतनी दयनीय है, कि उनकी कमाई से परिवार के लोगों को दो वक्त का खाना मिल जाए, वही बहुत है। हां, यह बात अलग है कि कुछ पत्रकार गलत तरीके से पैसे कमाकर आर्थिक रूप से संपन्न हो रहे है, लेकिन ज्यादातर पत्रकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के बावजूद न केवल कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, बल्कि उन पर खतरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट के मुताबित पिछले साल विभिन्न देशों में 70 पत्रकारों को जान गंवानी पड़ी, वहीं 650 से ज्यादा पत्रकारों की गिरफ्तारी हुई। इसमें से ज्यादातर मामलों में सरकार व पुलिस ने घटना की छानबीन करने के बाद दोषियों को सजा दिलाने की बड़ी-बड़ी बातें की, मगर नतीजा कुछ नहीं निकला। कुछ दिनों तक सुर्खियों में रहने के बाद आखिरकार मामले को पुलिस ने ठंडे बस्ते में डाल दिया। कुछ माह पहले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सरेराह एक पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी गई, वहीं छुरा के एक पत्रकार को समाचार छापने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। इन सब मामलों का आखिर क्या हुआ? इसका जवाब पुलिस व सरकार के पास भी नहीं है। इसीलिए अक्सर पत्रकारों के साथ हुई घटनाओं में कार्रवाई के सवाल पर नेता व पुलिस अधिकारी निरूत्तर होकर बगले झांकने लगते हैं।

फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट के मुताबित वैश्विक स्तर पर प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति में लगातार गिरावट आ रही है। यह गिरावट केवल कुछ क्षेत्रों में नहीं, बल्कि दुनिया के हर हिस्से में दर्ज की गई है। फ्रीडम हाउस पिछले तीन दशकों से मीडिया की स्वतंत्रता का आंकलन करता आया है। उसकी ओर से हर साल पेश किया जाने वाला वार्षिक रिपोर्ट बताता है कि किस देश में मीडिया की क्या स्थिति है। प्रत्येक देश को उसके यहां प्रेस की स्वतंत्रता के आधार पर रेटिंग दी जाती है। यह रेटिंग तीन श्रेणियों के आधार पर दी जाती है। एक, मीडिया ईकाइयां किस कानूनी माहौल में काम करती हैं। दूसरा, रिपोर्टिग और सूचनाओं की पहुंच पर राजनीतिक असर। तीसरा, विषय वस्तु और सूचनाओं के प्रसार पर आर्थिक दबाव। फ्रीडम हाउस ने पिछले वर्ष 195 देशों में प्रेस की स्थिति का आकलन किया है, इनमें से केवल 70 देश में ही प्रेस की स्थिति स्वतंत्र मानी गई है, जबकि अन्य देशों में पत्रकार, प्रेस के मालिक के महज गुलाम बनकर रह गए हैं, जिनके पास अपने अभिव्यक्ति को समाचार पत्र में लिखने की स्वतंत्रता भी नहीं हैं।

आज समाज के कुछ लोग आजादी के पहले और उसके बाद की पत्रकारिता का तुलना करते हैं। वे कहते हैं कि पहले की पत्रकारिता अच्छी थी, जबकि ऐसा कहना सरासर गलत होगा। अच्छे और बुरे पत्रकार की बात नहीं है, आज आधुनिक तकनीक के फलस्वरूप पत्रकारिता एक बड़ा उद्योग बन गया है और पत्रकार नामक एक नए किस्म के कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है। हालात ऐसे बन गए हैं कि दूसरे बड़े उद्योगों को चलाने वाला कोई पूंजीपति इस उद्योग को भी बड़ी आसानी से चला सकता है या अपनी औद्योगिक शुरुआत समाचार-पत्र के उत्पादन से कर सकता है। इस उद्योग के सारे कर्मचारी उद्योगपति के साथ-साथ पत्रकार हैं। यहां पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में प्रेस स्वतंत्र है? इसके जवाब में यही बातें सामने आती हैं कि न तो आज प्रेस स्वतंत्र है और न ही पत्रकार की कलम। हकीकत यह है कि पत्रकार की कलम आज प्रेस मालिकों की गुलाम बनकर रह गई है। आज कोई पत्रकार यह दावा नहीं कर सकता है कि वह जिस हकीकत को लिखता हैं उसे छापने का हक उनके पास है! यदि हकीकत यही है तो फिर किस बात की स्वतंत्रता और किस लिए प्रेस स्वतंत्रता दिवस? बहरहाल, विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी पत्रकारों को प्रेस की सच्ची स्वतंत्रता के लिए गंभीरता से चिंतन करने की जरूरत है, तभी प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाना सार्थक होगा।

मजदूरों के लिए क्या आजादी और क्या गुलामी!

एक दिन बाद यानी 1 मई को देशभर में बड़ी-बड़ी सभाएं होगी, बड़े-बड़े सेमीनार आयोजित किए जाएंगे, जिनमें मजदूरों के हितों की बड़ी-बड़ी योजनाएं भी बनेगी और ढ़ेर सारे लुभावने वायदे किए जाएंगे, जिन्हें सुनकर एक बार तो यही लगेगा कि मजदूरों के लिए अब कोई समस्या ही बाकी नहीं रहेगी। इन खोखली घोषणाओं पर लोग तालियां पीटकर अपने घर लौट जाएंगे, किन्तु अगले ही दिन मजदूरों को पुनः उसी माहौल से रूबरू होना पड़ेगा, फिर वही शोषण, अपमान जिल्लत भरी गुलामी जैसा जीवन जीने के लिए अभिशप्त होना पड़ेगा, जिसे दूर करने के नेताओं ने मजदूर दिवस के दिन बड़े-बड़े दावे किए थे। वास्तविकता तो यह है कि मई दिवस अब महज औपचारिकता रह गया है।

दरअसल, उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में श्रमिकों में अपने हक को लेकर जागरूकता पैदा हुई। मजदूरों ने शिकागो में रैलियों, आमसभाओं आदि के माध्यम से अपने अधिकारों, पारिश्रमिक के लिए आग्रह करना आरंभ किया। धीरे-धीरे इन प्रयासों का असर बढ़ा और 1886 से 1889 तक आसपास के देशों में भी मजदूर और कर्मचारियों में अपने हक के लिए जागरूकता आई। मजदूरों का शिकागो विरोध काफी प्रसिध्द हुआ और 1890 में जब 1 मई को इसकी पहली वर्षगांठ मनाई गई, तभी से मई दिवस मनाने का चलन शुरू हुआ। कमोबेश उस समय मजदूरों का अलग-अलग वर्ग नहीं था। अपने हक के लिए सभी मजदूर एक साथ लड़ते थे, लेकिन चापलूस श्रमिक नेताओं की वजह से आज मजदूर, संगठित और असंगठित वर्ग में बंटकर रह गए हैं। संगठित क्षेत्र के मजदूर जहाँ अपने अधिकारों आदि के बारे में जागरूक है और शोषण करने वालों के खिलाफ आवाज बुलंद कर मोर्चा खोलने में सक्षम है, वहीं असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में लगभग 90 फीसदी को विश्व मजदूर दिवस’ के बारे में भी पता भी नहीं है। बहुत से स्थानों पर तो ‘मजदूर दिवस’ पर भी मजदूरों को ‘कोल्हू के बैल’ की तरह 14 से 16 घंटे तक काम करते देखा जा सकता है। यानी जो दिन पूरी तरह से उन्हीं के नाम कर दिया गया है, उस दिन भी उन्हें दो पल का चैन नहीं। देश का शायद ही ऐसा कोई हिस्सा हो, जहां मजदूरों का खुलेआम शोषण न होता हो। आज भी स्वतंत्र भारत में बंधुआ मजदूरों की बहुत बड़ी तादा है। कोई ऐसे ही बधुआ मजदूरों से पूछकर देखे कि उनके लिए देश की आजादी के क्या मायने हैं, जिन्हें अपनी मर्जी से अपना जीवन जीने का ही अधिकार न हो, जो दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी अपने परिवार का पेट भरने में सक्षम न हो पाते हो, उनके लिए क्या आजादी और क्या गुलामी? इससे ज्यादा बदतर स्थिति तो बाल एवं महिला श्रमिकों की है। महिला श्रमिकों का आर्थिक रूप से तो शोषण होता ही है, उनका शारीरिक रूप से भी जमकर शोषण किया जाता है, लेकिन अपना व बच्चों का पेट भरने के लिए चुपचाप सब कुछ सहते रहना इन महिला मजदूरों की जैसे नियति ही बन गई है। ऐसे में इस 1 मई यानी विश्व मजदूर दिवस’ का क्या औचित्य रह जाता है?

आज खासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का जमकर शोषण किया जा रहा है और इस काम में राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, पूंजीपति, ठेकेदार और बाहुबली आदि सब मिले हुए है। श्रमिकों की सप्लाई कच्चे माल की तरह हो रही है। सरकार के तमाम कानूनों को ठेंगा दिखाकर ठेकेदार ही मजदूरों के माई-बाप बन गए है, जो रूपए का लालच देकर मजदूरों को कहीं भी ले जाते है, मगर यह जानते हुए भी सरकार व सरकारी तंत्र उन ठेकेदारों के खिलाफ कुछ कार्रवाई नहीं कर पाती। विड़म्बना की बात यह भी है कि देश की स्वाधीनता के छह दशक बाद भी अनेक श्रम कानूनों को अस्तित्व में लाने के बावजूद हम आज तक ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं कर पाए हैं, जो मजदूरों को उनके श्रम का उचित मूल्य दिला सके। भले ही इस संबंध में कुछ कानून बने हैं पर वे सिर्फ कागजों तक ही सीमित हैं। एक सच यह भी है कि अधिकांश मजदूर या तो अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ हैं या फिर वे अपने अधिकारों के लिए इस वजह से आवाज नहीं उठा पाते कि कहीं इससे नाराज होकर उनका मालिक उन्हें काम से ही निकाल दे और उनके परिवार के समक्ष भूखे मरने की नौबत आ जाए। जहां तक मजदूर संगठनों के नेताओं द्वारा मजदूरों के हित में आवाज उठाने की बात है तो आज के दौर में अधिकांश ट्रेड यूनियनों के नेता भी भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र का हिस्सा बन चुके हैं, जो विभिन्न मंचों पर श्रमिकों के हितों के नाम पर बात करते तो नजर आते हैं लेकिन अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए कारखानों के मालिकों से सांठगांठ कर अपने ही मजदूर भाईयों के हितों पर कुल्हाड़ी चलाने में संकोच नहीं करते। देश में हर वर्ष श्रमिकों को उनके श्रम के वाजिब मूल्य, उनकी सुविधाओं आदि के संबंध में दिशा-निर्देश जारी करने की परम्परा सी बन चुकी है। समय-समय पर मजदूरों के लिए नए सिरे से मापदंड निर्धारित किए जाते हैं, लेकिन इनका क्रियान्वयन हो पाता है या नहीं, इसे देखने वाला भी कोई नहीं है। इससे भी कहीं ज्यादा अफसोस का विषय यह है कि देशभर में करीब 36 करोड़ श्रमिकों में से 34 करोड़ से अधिक को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल पा रही है, तो ऐसे मजदूर दिवस मनाने से आखिर फायदा ही क्या है।

बाघों के अस्तित्व पर खतरा

औद्योगिक परियोजनाओं और शिकार की वजह से देश के उत्तरी आंध्र प्रदेश, पूर्वी गोदावरी, करीमनगर सहित विशाखापट्नम के आसपास बाघों के आवासीय क्षेत्रों में भारी कमी आई है, इससे उनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। ऐसे में बाघों के संरक्षण के लिए जंगल और उसके आसपास रहने वाले लोग किस हद तक मददगार साबित हो सकते हैं, इस पर विचार किया जाना अत्यंत जरूरी हो गया है।
दो दशक पहले कानून की उपेक्षा करते हुए शिकारी बेखौफ बाघों का शिकार करने लगे थे, तब सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। कुछ पर्यावरणविदों ने जब इस खतरनाक स्थिति की ओर सरकार का ध्यान दिलाया तो आनन-फानन में बाघ संरक्षण को लेकर परियोजनाएं बनीं। नतीजतन पिछले एक दशक में बाघों के संरक्षण को लेकर देश में एकदम से जागरूकता का माहौल बन गया है। पिछले सोमवार को अंतरराष्ट्रीय बाघ सम्मेलन में बाघों की गणना सूची 2010 जारी की गई है। इसके मुताबिक देश में बाघों की संख्या 1706 हो गई है, जो 2006 की गणना से 295 अधिक है। पिछले गणना से इस गणना के बीच के चार सालों में बाघों की संख्या में प्रयासपूर्वक इजाफा किया गया है, तो यह वाकई काबिले तारीफ है, लेकिन चिंता की बात यह है कि बाघ संरक्षण के लिए कार्यरत विशेषज्ञों व पर्यावरणविद इस गणना को लेकर न बहुत प्रसन्न हैं और न ही एकमत हैं। यह पहला मौका है जब गणना में सुंदरबन के बाघों को शामिल किया गया है, पिछली गणना के दौरान सुंदरबन के बाघों को शामिल नहीं किया गया। सर्वे से यह भी पता चला है कि काजीरंगा और दक्षिण भारत में बाघों की संख्या बढ़ी है, जबकि मध्य व उत्तर भारत में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि बाघों का आवासीय क्षेत्र 936,000 हेक्टेयर से घटकर 728,000 तक पहुंच गया है। मध्य व उत्तर भारत के वनों में आज बाघों की संख्या नही बढ़ पाई है, तो इसकी सबसे बड़ी वजह यहां के जंगलों में कोई कानून असरकारी साबित न हो पाना है।

विचारधारा से साबित नहीं होता नक्सलवाद

राष्ट्रद्रोह नक्सलियों से संबंध रखने के आरोप में चार माह तक केन्द्रीय कारागार रायपुर में कैद रहे पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. बिनायक सेन के लिए जमानत की व्यवस्था करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणी की है, उस पर पूरे भारत में न्याय और कानून-व्यवस्था से जुडे लोगों को गंभीरता से सोचना चाहिए। अदालत ने डॉ. सेन पर लगाए गए राजद्रोह के आरोप को निराधार बताते हुए अचरज भी जताया कि एक लोकतांत्रिक देश में सिर्फ विचारधारा को आधार मानकर कैसे किसी को उम्रकैद की सजा सुना दी जाती है।
पीयूसीएल नेता सेन को निचली अदालत ने दिसम्बर 2010 में देशद्रोह का दोषी ठहराते हुउ उम्र कैद की सजा सुनाई थी। इसके बाद से डॉ सेन जेल में थे। छत्तीसगढ़ पुलिस ने विनायक सेन के खिलाफ नक्सलवादियों को मदद पहुंचाने, उनकी विचारधारा का प्रचार करने और उनके लिए संपर्क सूत्र का काम करने का आरोप लगाया था, लेकिन सबूत के नाम पर उसके पास डॉ. सेन के घर से जब्त कुछ किताबें, पत्रिकाएं और पर्चे थे, जो राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले किसी भी विद्यार्थी या बुद्धिजीवी के घर में भी मिल सकते हैं। मेरे विचार से विनायक सेन और उनके काम को लेकर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती हैं, लेकिन इस मामले में छत्तीसगढ़ सरकार के रवैये के पक्ष में कोई भी लोकतांत्रिक सोच वाला कभी नहीं आएगा। इस मामले में दिलचस्प बात यह है कि अदालत ने जमानत के लिए डॉ सेन की याचिका पर सुनवाई करते हुए छत्तीसगढ़ सरकार के वकील से आश्चर्य के साथ पूछा था कि किसी के घर में महात्मा गांधी की जीवनी मिलने से क्या उसे गांधीवादी मान लिया जाएगा? डॉ सेन के खिलाफ एक और आरोप यह था कि वे जेल में बंद नक्सली नेता पीयूष गुहा से 33 बार मिलेे। बिना किसी सबूत के डॉ सेन पर यह आरोप भी लगाया गया कि इन मुलाकातों के दौरान उन्होंने पीयूष गुहा के साथ नक्सली सूचनाओं का आदान-प्रदान किया। इस आरोप को सुप्रीम कोर्ट ने एक सिरे से खारिज करते हुए कहा कि डॉ सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाने और उनकी जमानत याचिका खारिज करने से पहले ट्रायल कोर्ट सहित हाईकोर्ट को अभियोजन पक्ष से नक्सली सूचनाओं के आदान-प्रदान के किस्म और तरीकों पर सवाल तो पूछने थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया है। डॉ सेन पर लगे राजद्रोह के आरोप को निराधार बताते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा अचरज जताए जाने को लेकर बुद्धिजीवी वर्ग को गंभीरता से विचार करना जरूरी है। भारत में न्यायपालिका, चाहे वह सबसे निचले पायदान की हो, अपने फैसले लेने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है, लेकिन फैसलों के दौरान जब न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को लेकर उससे कोई चूक होती नजर आती है तो इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति समाज का विश्वास कम होता है। देश के कई राज्यों में नक्सलवादी हिंसा एक बड़ी समस्या बनी हुई है, जहां की सरकारें इससे अपने स्तर पर से निपट रही हैं, लेकिन उन्हें इस बात का ध्यान होना चाहिए कि ऐसा करते हुए वे भारतीय लोकतंत्र की मर्यादाओं का अतिक्रमण न करें।

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