-राजेन्द्र राठौर/छत्तीसगढ़
एक स्वस्थ लोकतंत्र
में स्वतंत्र प्रेस का अपना ही महत्व है। इससे प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ती है और आर्थिक विकास को बल मिलता है, लेकिन समाज का चौथा स्तंभ कहलाने वाले प्रेस और पत्रकारों की स्थिति बहुत संतोषजनक भी नहीं है। तेजी से बढ़ते विज्ञापनवाद के कारण आज प्रेस की स्वतंत्रता के मायने पूरी तरह से बदल गए हैं।
3 मई को विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है। यह दिन प्रेस व पत्रकारों के लिए बहुत खास दिन होता है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस याद दिलाता है कि हरेक राष्ट्र और समाज को अपनी अन्य स्वतंत्रताओं की तरह प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी हमेशा सतर्क और जागरूक रहना होता है। मगर आधुनिक तकनीक और विज्ञापन की चकाचौंध दुनिया ने प्रेस व पत्रकारों की स्वतंत्रता के मायने ही बदल कर रख दिए हैं। कुछ दशक पहले पत्रकार समाज में जो कुछ देखता था, उसे लिखता था और उसका असर भी होता था, लेकिन आज पत्रकारों के पास अपने विचार व आंखों देखी घटना को लिखने का अधिकार भी नहीं है। यदि पत्रकार कुछ लिखना भी चाहे, तो पहले उसे अपने संपादक व प्रबंधन के लोगों से अनुमति लेनी पड़ती है। इसके बाद भी उस पत्रकार द्वारा लिखे खबर के प्रकाशित होने की कोई गारंटी नहीं है। यदि खबर किसी विज्ञापनदाता के खिलाफ हो तो, खबर छपने की गुंजाईश ही नहीं है। आज हम भले ही प्रेस को स्वतंत्र मान रहे है, लेकिन इसमें कितनी फीसदी सच्चाई है, इसे हम भली-भांति जानते हैं। आधुनिक तकनीक के कारण आज पत्रकारिता एक बड़े उद्योग का रूप ले चुका है। देश में ऐसे कई धन्ना सेठ हैं, जो अपने काले कारनामों को छिपाने के लिए प्रेस को ढ़ाल बनाए बैठे हैं। कुछ लोग तो अपने रूतबे को कायम रखने के लिए प्रेस का संचालन कर रहे हैं। ऐसे प्रेस में काम करने वाले पत्रकार की क्या अहमियत होगी और वह कितना स्वतंत्र होगा, इसका अंदाजा लगाना बहुत आसान है। बदलते परिवेश में आज पत्रकार कहलाने वाले एक नए किस्म के कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है, जो हर महीने पगार लेकर अपने कलम की धार को धन्ना सेठों के पास बेचने के लिए मजबूर है। आखिर ऐसा करना पत्रकारों की मजबूरी भी तो है, क्योकि पत्रकारिता का रोग यदि किसी को एक बार लग जाए, तो उसे केवल लिखने-पढ़ने में ही मजा आता है। इसी बात का ही प्रेस के मालिक फायदा उठाते है और पत्रकारों को उनके हाथों की कठपुतली बनकर काम करना पड़ता है। यदि पत्रकार कभी अपनी मर्जी से कोई खबर लिख दे और उसे छापने के लिए प्रेस पर दबाव डाले,
तो समझो उसकी नौकरी गई। बड़े शहरों के पत्रकारों की हालत अच्छी है, मगर छोटे शहरों व कस्बों में काम वाले पत्रकारों की दशा इतनी दयनीय है, कि उनकी कमाई से परिवार को दो वक्त रोटी मिल जाए, वही बहुत है। हां, यह बात अलग है कि कुछ पत्रकार गलत तरीके से पैसे कमाकर आर्थिक रूप से संपन्न हो रहे है, लेकिन ज्यादातर पत्रकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के बावजूद न केवल कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, बल्कि उन पर खतरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। मौजूदा हालत में सबसे ज्यादा उन पत्रकारों को मुसीबत झेलनी पड़ रही है, जो समाज की हकीकत को लिखने का दम रखते है, जबकि बिना कुछ लिखे-पढ़े पत्रकार कहलाने वाले छुटभैये लोगों की तो हर तरफ चांदी ही चांदी है। ऐसे लोगों की प्रेस मालिकों के साथ खूब जमती है। दरअसल वे मलाई बटोरकर अपने मालिक तक पहुंचाते जो हैं।
पत्रकारों को सुविधा देने तथा आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में सरकार भी गंभीर नहीं है। रेल में सफर करने के लिए सरकार ने पत्रकारों को थोड़ी बहुत छूट दी है, मगर इसके लिए भी अधिमान्यता का कार्ड होना जरूरी है। जबकि सरकार इस बात को भी अच्छी तरह से जानती है कि ज्यादातर प्रेस के संपादक अधिमान्यता कार्ड के लिए अपने पत्रकारों को अनुभव प्रमाण पत्र बनाकर नहीं देते। ऐसे में सरकारी छूट का सभी पत्रकारों को फायदा ही क्या? सोंचने वाली बात तो यह है कि जिस बैंक व वाहन व्यवसायी की खबर को पत्रकार आए दिन छापता है, वही लोग पत्रकार को लोन देने के लिए भी हाथ खड़े कर देते हैं। लोन के लिए पत्रकार के निवेदन करने पर ऐसे लोग नियमों की दुहाई देते है और यह भी कहते है कि पत्रकारों को लोन देने के लिए उनके उपरी प्रबंधन से कोई निर्देश नहीं है। ऐसा सुनकर काफी आश्चर्य लगता है। तकलीफ तो उस समय ज्यादा होती है जब बैंक में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को आसानी से लोन दे दिया जाता है और वही पत्रकार खड़ा मुंह ताकता रहता है। पत्रकारिता क्षेत्र आज इतनी खराब हो गई है कि बहुत कम लोग पत्रकार बनने की इच्छा रखते है। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर एक पत्रकार बनकर मुझे क्या मिला, क्योंकि पत्रकारिता का भूत सवार होने के बाद मेरे हालात दिनों दिन बद से बदतर जो हो गए हैं। मगर जब मैं गहराई से सोंचता हूं कि पत्रकार बनने के बाद भले ही मुझे कुछ मिला या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन कम से कम मैं समाज की गंदगी को साफ करने की कोशिश तो कर रहा हूं। खैर लिखने को तो तमाम बातें है, लेकिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी पत्रकारों को प्रेस की सच्ची स्वतंत्रता के लिए गंभीरता से चिंतन करना होगा।

3 मई को विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है। यह दिन प्रेस व पत्रकारों के लिए बहुत खास दिन होता है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस याद दिलाता है कि हरेक राष्ट्र और समाज को अपनी अन्य स्वतंत्रताओं की तरह प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी हमेशा सतर्क और जागरूक रहना होता है। मगर आधुनिक तकनीक और विज्ञापन की चकाचौंध दुनिया ने प्रेस व पत्रकारों की स्वतंत्रता के मायने ही बदल कर रख दिए हैं। कुछ दशक पहले पत्रकार समाज में जो कुछ देखता था, उसे लिखता था और उसका असर भी होता था, लेकिन आज पत्रकारों के पास अपने विचार व आंखों देखी घटना को लिखने का अधिकार भी नहीं है। यदि पत्रकार कुछ लिखना भी चाहे, तो पहले उसे अपने संपादक व प्रबंधन के लोगों से अनुमति लेनी पड़ती है। इसके बाद भी उस पत्रकार द्वारा लिखे खबर के प्रकाशित होने की कोई गारंटी नहीं है। यदि खबर किसी विज्ञापनदाता के खिलाफ हो तो, खबर छपने की गुंजाईश ही नहीं है। आज हम भले ही प्रेस को स्वतंत्र मान रहे है, लेकिन इसमें कितनी फीसदी सच्चाई है, इसे हम भली-भांति जानते हैं। आधुनिक तकनीक के कारण आज पत्रकारिता एक बड़े उद्योग का रूप ले चुका है। देश में ऐसे कई धन्ना सेठ हैं, जो अपने काले कारनामों को छिपाने के लिए प्रेस को ढ़ाल बनाए बैठे हैं। कुछ लोग तो अपने रूतबे को कायम रखने के लिए प्रेस का संचालन कर रहे हैं। ऐसे प्रेस में काम करने वाले पत्रकार की क्या अहमियत होगी और वह कितना स्वतंत्र होगा, इसका अंदाजा लगाना बहुत आसान है। बदलते परिवेश में आज पत्रकार कहलाने वाले एक नए किस्म के कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है, जो हर महीने पगार लेकर अपने कलम की धार को धन्ना सेठों के पास बेचने के लिए मजबूर है। आखिर ऐसा करना पत्रकारों की मजबूरी भी तो है, क्योकि पत्रकारिता का रोग यदि किसी को एक बार लग जाए, तो उसे केवल लिखने-पढ़ने में ही मजा आता है। इसी बात का ही प्रेस के मालिक फायदा उठाते है और पत्रकारों को उनके हाथों की कठपुतली बनकर काम करना पड़ता है। यदि पत्रकार कभी अपनी मर्जी से कोई खबर लिख दे और उसे छापने के लिए प्रेस पर दबाव डाले,

पत्रकारों को सुविधा देने तथा आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में सरकार भी गंभीर नहीं है। रेल में सफर करने के लिए सरकार ने पत्रकारों को थोड़ी बहुत छूट दी है, मगर इसके लिए भी अधिमान्यता का कार्ड होना जरूरी है। जबकि सरकार इस बात को भी अच्छी तरह से जानती है कि ज्यादातर प्रेस के संपादक अधिमान्यता कार्ड के लिए अपने पत्रकारों को अनुभव प्रमाण पत्र बनाकर नहीं देते। ऐसे में सरकारी छूट का सभी पत्रकारों को फायदा ही क्या? सोंचने वाली बात तो यह है कि जिस बैंक व वाहन व्यवसायी की खबर को पत्रकार आए दिन छापता है, वही लोग पत्रकार को लोन देने के लिए भी हाथ खड़े कर देते हैं। लोन के लिए पत्रकार के निवेदन करने पर ऐसे लोग नियमों की दुहाई देते है और यह भी कहते है कि पत्रकारों को लोन देने के लिए उनके उपरी प्रबंधन से कोई निर्देश नहीं है। ऐसा सुनकर काफी आश्चर्य लगता है। तकलीफ तो उस समय ज्यादा होती है जब बैंक में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को आसानी से लोन दे दिया जाता है और वही पत्रकार खड़ा मुंह ताकता रहता है। पत्रकारिता क्षेत्र आज इतनी खराब हो गई है कि बहुत कम लोग पत्रकार बनने की इच्छा रखते है। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर एक पत्रकार बनकर मुझे क्या मिला, क्योंकि पत्रकारिता का भूत सवार होने के बाद मेरे हालात दिनों दिन बद से बदतर जो हो गए हैं। मगर जब मैं गहराई से सोंचता हूं कि पत्रकार बनने के बाद भले ही मुझे कुछ मिला या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन कम से कम मैं समाज की गंदगी को साफ करने की कोशिश तो कर रहा हूं। खैर लिखने को तो तमाम बातें है, लेकिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी पत्रकारों को प्रेस की सच्ची स्वतंत्रता के लिए गंभीरता से चिंतन करना होगा।
संपर्क:-09770545499
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